Sunday, June 2, 2013

कौन हो तुम…?

कौन हो तुम…?
क्यूँ तुम्हें इस तरह चाहे है ये मन?
क्यूँ कुछ पल तुम्हारे तुम से मांगे है ये मन।
क्यूँ सोचे है ये तुम्हे हर घडी कुछ इस तरह।
क्यूँ करे है आज मुझसे ये बेतुके सवाल…

आखिर कौन हो तुम?

मेरे इस दिशाहीन मन के लिए एक ज्योत हो तुम।
इसके भटकने का मार्ग हो तुम, गंतव्य भी हो तुम।
एक नया आरम्भ हो तुम, एक पुराना लक्ष्य हो तुम।
इसके नव अर्जित बावलेपन का श्रोत हो तुम।

कैसे समझाऊं इसे की कौन हो तुम?
क्या जवाब दूं इसे अब?
कैसे बतलाऊं इसे की कुछ नहीं हो तुम।
क्या कहूं जब लगे इसको की सब कुछ हो तुम।

मेरे जीवन के रंगमंच का एक पात्र हो तुम।
क्या भूमिका है तुम्हारी, पूछे ये पागल मन।
संभवतः मेरी ही अधूरी कोई कविता हो तुम।
क्या कभी होगी पूरी, विचारे है आज ये मन।

आखिर कौन हो तुम…?
क्यूँ तुम्हें इस तरह चाहे है ये मन?

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